Sunday 11 June 2017

हिय के पीर

माने न मनमोहना समझे न हिय के पीर
विनती करके हार गयी बहे नयन से नीर

खड़ी गली के छोर पे बाट निहारे नैना
अबहुँ न आये साँवरे बेकल जिया अधीर

हाल बताऊँ कैसे मैं न बात करे निर्मोही
खत भी वापस आ गये कैसे धरूँ अब धीर

जीत ले चाहे जग को तू नेह बिन सब सून
मौन तेरे विष भरे लगे घाव करे गंभीर

सूझे न कुछ और मोहे उलझे मन के तार
उड़ उड़ जाये पास तेरे रटे नाम मन कीर

भरे अश्रु से मेघ सघन बरसे दिन और रात
गीली पलकें ले सुखाऊँ जमना जी के तीर

         #श्वेता🍁



6 comments:

  1. बहुत बेहतरीन रचना

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  2. जी आभार लोकेश जी

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  3. बहुत ही सुंदर लिखा है
    हार्दिक बधाई
    bhartispoem.blogspot.com

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    1. जी बहुत शुक्रिया आपका।

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  4. वाह....
    बोहतरीन..
    सादर

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया दी आपका।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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