Friday 21 July 2017

आहटें

दिन के माथे पर बिखर गयी साँझ की लटें
स्याह आसमां के चेहरे से नज़रे ही न हटें

रात के परों पे उड़ती तितलियाँ जुगनू की
अलसाता चाँद बादलों में लेने लगा करवटें

फिसलती चाँदनी हँसी फूलों के आँचल पर
निकले टोलियों में सितारों की लगी जमघटें

पूछ रही हवाएँ छूकर पत्तों के रूखसारों को
क्यों खामोश हो लबों पे कैसी है सिलवटें

सोये झील के आँगन में लगा है दर्पण कोई
देख के मुखड़ा आसमां सँवारे बादल की लटें

चुपके से हटाकर ख्वाबों के अन्धेरे परदे
सुगबुगाने लगी नीदें गुनगुनाने लगी आहटे

    #श्वेता🍁

10 comments:

  1. वाहहह
    बहुत खूबसूरत ग़ज़ल

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका लोकेश जी।

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  2. वाह ! बेहतरीन प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीय ।

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    1. बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका सर।
      आपका आशीष बना रहे सदैव।

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  3. सुंदर प्राकृतिक बिंबों से सजी रचना

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    1. जी, मीना जी बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका।

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  4. पूछ रही हवाएँ छूकर पत्तों के रूखसारों को
    क्यों खामोश हो लबों पे कैसी है सिलवटें
    .... मानवीकरण की विलक्षण बिम्ब आकृतियों से सजी धजी चमत्कृत शैली में सुगबुगाती गुनगुनाती ग़ज़ल की आहट!!!

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    1. आपकी मनभावनी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार आपका विश्वमोहन जी। यूँ ही सदैव उत्साह बढ़ाते रहे प्रार्थना है।

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  5. adbhut....bahut sundar likha hai...फिसलती चाँदनी हँसी फूलों के आँचल पर

    wah kya khayal hai....

    sanjay bhaskar

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    1. बहुत बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका संजय जी। आपकी सुंदर प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहता है।बहुत धन्यवाद आपका।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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