Tuesday 25 December 2018

धर्म


सोचती हूँ
कौन सा धर्म 
विचारों की संकीर्णता
की बातें सिखलाता है?

सभ्यता के
विकास के साथ
मानसिकता का स्तर
शर्मसार करता जाता है।

धर्मनिरपेक्षता 
शाब्दिक स्वप्न मात्र
नियम -कायदों के पृष्ठों में
दबकर कराहता है।

धर्म पताका
धर्म के नाम का
धर्म का ठेकेदार
तिरंगें से ऊँचा फहराता है।

शांति सौहार्द्र की 
डींगें हाँकने वाला
साम्प्रदायिकता की गाड़ी में
अमन-चैन ढुलवाता है।

अभिमान में स्व के
रौंदकर इंसानियत
निर्मम अट्टहास कर
धर्मवीर तमगा पा इठलाता है।

जीवन-चक्र
समझ न नादां
कर्मों का खाता,बाद तेरे
जग में रह-रह के पलटा जाता है।

मज़हबों के ढेर से
इंसानों को अलग कर देखो
धर्म की हर एक किताब में 
इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता है।

-श्वेता सिन्हा





Wednesday 19 December 2018

चाँद..


तन्हाई की आँच में
टुकड़ों में गल रहा है चाँद,
दामन से आसमाँ के  
देखो! पिघल रहा है चाँद।

छत की मुंडेरों पर 
झुकी हैंं पलकें सितारों की,
फुनगी पर नीम की 
शमा-सा जल रहा है चाँद।

शायद कोई ख़्वाब होगा 
तसव्वुर में रुमानी-सा,
चूम कर पेशानी अब्र की 
करवट बदल रहा है चाँद।

हवा की बाँसुरी पर
थिरकते चमन के फूलों पर,
छिड़क इत्र चाँदनी की
शोख़ मचल रहा है चाँद।

शबनमी बूँद भरी
रेशमी पैरहन में लिपटा,
आसमाँ के बदन पर 
ख़्वाब मल रहा है चाँद।

-श्वेता सिन्हा

Monday 17 December 2018

दिसम्बर


दिसम्बर
(१)
गुनगुनी किरणों का
बिछाकर जाल
उतार कुहरीले रजत 
धुँध के पाश
चम्पई पुष्पों की ओढ़ चुनर 
दिसम्बर मुस्कुराया

शीत बयार 
सिहराये पोर-पोर
धरती को छू-छूकर
जगाये कलियों में खुमार
बेचैन भँवरों की फरियाद सुन
दिसम्बर मुस्कुराया

चाँदनी शबनमी
निशा आँचल में झरती 
बर्फीला चाँद पूछे
रेशमी प्रीत की कहानी
मोरपंखी एहसास जगाकर
दिसम्बर मुस्कुराया

आग की तपिश में
मिठास घुली भाने लगी 
गुड़ की चासनी में पगकर
ठंड गुलाब -सी मदमाने लगी
लिहाफ़ में सुगबुगाकर हौले से
दिसम्बर मुस्कुराया

(२)

भोर धुँँध में
लपेटकर फटी चादर
ठंड़ी हवा के
कंटीले झोंकों से लड़कर
थरथराये पैरों को 
पैडल पर जमाता
मंज़िल तक पहुँचाते
पेट की आग बुझाने को लाचार
पथराई आँखों में 
जमती सर्दियाँ देखकर
सोचती हूँ मन ही मन
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो

वो भी अपनी माँ की
आँखों का तारा होगा
अपने पिता का राजदुलारा 
फटे स्वेटर में कँपकँपाते हुए
बर्फीली हवाओं की चुभन
करता नज़रअंदाज़
काँच के गिलासों में 
डालकर खौलती चाय
उड़ती भाप की लच्छियों से
बुनता गरम ख़्वाब
उसके मासूम गाल पर उभरी
मौसम की खुरदरी लकीर
देखकर सोचती हूँ
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो

बेदर्द रात के
क़हर से सहमे थरथराते
सीले,नम चीथड़ों के 
ओढ़न-बिछावन में
करवट बदलते
सूरज का इंतज़ार करते
बेरहम चाँद की पहरेदारी में
बुझते अलाव की गरमाहट
भरकर स्मृतियों में
काटते रात के पहर 
खाँसते बेदम बेबसों को 
देखकर सोचती हूँ 
दिसम्बर यूँ न क़हर बरपाया करो

-श्वेता सिन्हा

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Wednesday 12 December 2018

एहसास जब.....

एहसास जब दिल में दर्द बो जाते हैं
तड़पता देख के पत्थर भी रो जाते हैं

ऐसा अक्सर होता है तन्हाई के मौसम में
पलकों से गिर के ख़्वाब कहीं खो जाते हैं

तुम होते हो तो हर मंज़र हसीं होता है
जाते ही तुम्हारे रंग सारे फीके हो जाते हैं

उनींदी आँखों के ख़्वाब जागते हैंं रातभर
फ़लक पे चाँद-तारे जब थक के सो जाते हैं

जाने किसका ख़्याल आबाद है ज़हन में
क्यूँ हम ख़ुद से भी अजनबी हो जाते हैं

बीत चुका है मौसम इश्क़ का फिर भी
याद के बादल क़ब्र पे आकर रो जाते हैं

वक़्त का आईना मेरे सवाल पर चुप है
दिल क्यों नहीं चेहरों-से बेपर्दा हो जाते हैं

-श्वेता सिन्हा


Saturday 8 December 2018

स्वप्न


तन्हाइयों में गुम ख़ामोशियों की
बन के आवाज़ गुनगुनाऊँ 
ज़िंदगी की थाप पर नाचती साँसें
लय टूटने से पहले जी जाऊँ 

दरबार में ठुमरियाँ हैं सर झुकाये
सहमी-सी हवायें शायरी कैसे सुनायें
बेहिस क़लम में भरुँ स्याही बेखौफ़ 
तोड़कर बंदिश लबों की, गीत गाऊँ

गुम फ़िजायें गूँजती बारुदी पायल
गुल खिले चुपचाप बुलबुल हैं घायल
मंदिर,मस्जिद की हद से निकलकर
छिड़क इत्र सौहार्द के,नग्में सुनाऊँ

हादसों के सदमे से सहमा शहर
बेआवाज़ चल रही हैं ज़िंदगानी
धुँध की चादर जो आँख़ों में पड़ी
खींच दूँ नयी एक सुबह जगाऊँ

बंद दरवाज़े,सोये हुये हैंं लोग बहरे
आम क़त्लेआम, हँसी पर हज़ार पहरे
चीर सन्नाटों को, रचा बाज़ीगरी कोई
खुलवा खिडकियाँ आईना दिखाऊँ

काश! आदमियत ही जात हो जाये
दिलों से मानवता की बात हो जाये
कूची कोई जादू भरी मुझको मिले
स्वप्न सत्य करे,ऐसी तस्वीर बनाऊँ

-श्वेता सिन्हा


बेहिस-लाचार

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Wednesday 28 November 2018

नेह की डोर


मन से मन के बीच
बंधी नेह की डोर पर
सजग होकर 
कुशल नट की भाँति
एक-एक क़दम जमाकर 
चलना पड़ता है
टूटकर बिखरे
ख़्वाहिशों के सितारे
जब चुभते है नंगे पाँव में 
दर्द और कराह से 
ज़र्द चेहरे पर बनी
पनीली रेखाओं को
छुपा गुलाबी चुनर की ओट से 
गालों पर प्रतिबिंबिंत कर
कृत्रिमता से मुस्कुराकर
टूटने के डर से थरथराती डोर को
कस कर पकड़ने में
लहलुुहान उंगलियों पर
अनायास ही 
तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श के घर्षण से
बुझते जीवन की ढेर में
लहक उठकर हल्की-हल्की
मिटा देती है मन का सारा ठंड़ापन
उस पल सारी व्यथाएँ 
तिरोहित कर 
मेरे इर्द-गिर्द ऑक्टोपस-सी कसती
तुम्हारे सम्मोहन की भुजाओं में बंधकर 
सुख-दुख,तन-मन,
पाप-पुण्य,तर्क-वितर्क भुलाकर 
अनगिनत उनींदी रातों की नींद लिए
ओढ़कर तुम्हारे एहसास का लिहाफ़
मैं सो जाना चाहती हूँ 
कभी न जागने के लिए।

---श्वेता सिन्हा

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Sunday 25 November 2018

थोड़ा-सा रुमानी हो लें


ज़िंदगी की उदासियों में
चुटकी भर रंग घोलें 
अश्क में मुहब्बत मिला कर
थोड़ा-सा रुमानी हो लें 

दर्द को तवज्ज़ो कितना दें
दामन रो-रो कर भीगो लें
चुभते लम्हों को दफ़न करके
बनावटी चेहरों पे कफ़न धरके
वफ़ा की बाहों में सुकूं से सो लें
थोड़ा-सा रुमानी हो लें 

रेत पर बिखरे मिले ख़्वाब घरौंदें
राज़ समुंदर का लहरें बोले
वक्त की दर्या में ज़ज़्बात बहा के
सफ़हों पे लिखे अरमान मिटा के
मौज में मुहब्बत की बेपरवाह डोले
थोड़ा-सा रुमानी हो लें

किसी इनायत के इंतज़ार में
दर कब तलक खुला रखें
नहीं लकीरों में उन्हें भुला के
ख़्वाबों की तस्वीर सब जला के
उल्फ़त में अपने होश हम खो लें
थोड़ा-सा रुमानी हो लें 

-श्वेता सिन्हा

Wednesday 21 November 2018

आपके एहसास ने


आपके एहसास ने जबसे मुझे छुआ है
सूरज चंदन भीना,चंदनिया महुआ है

मन के बीज से फूटने लगा है इश्क़
मौसम बौराया,गाती हवायें फगुआ है

वो छोड़कर जबसे गये हमको तन्हा
बेचैन, छटपटाती पगलाई पछुआ है

लगा श्वेत,कभी धानी,कभी सुर्ख़,
रंग तेरी चाहत का मगर गेरुआ है

क्या-क्या सुनाऊँ मैं रो दीजिएगा 
तड़पकर भी दिल से निकलती दुआ है

जीवन पहेली का हल जब निकाला 
ग़म रेज़गारी, खुशी ख़ाली बटुआ है

  -श्वेता सिन्हा

Saturday 10 November 2018

रंग मुस्कुराहटों का


उजालों की खातिर,अंधेरों से गुज़रना होगा
उदास हैं पन्ने,रंग मुस्कुराहटोंं का भरना होगा

यादों से जा टकराते हैंं इस उम्मीद से
पत्थरों के सीने में मीठा कोई झरना होगा

उफ़नते समुंदर के शोर से कब तक डरोगे
चाहिये सच्चे मोती तो लहरों में उतरना होगा

हर सिम्त आईना शहर में लगाया जाये
अक्स-दर-अक्स सच को उभरना होगा

मुखौटों के चलन में एक से हुये चेहरे
बग़ावत में कोई हड़ताल न धरना होगा

सियासी बिसात पर काले-सादे मोहरे हम
वक़्त की चाल पर बे-मौत भी मरना होगा

©श्वेता सिन्हा

Wednesday 7 November 2018

आस का नन्हा दीप


दीपों के जगमग त्योहार में
नेह लड़ियों के पावन हार में
जीवन उजियारा भर जाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

अक्षुण्ण ज्योति बनी रहे
मुस्कान अधर पर सजी रहे
किसी आँख का आँसू हर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

खेतों की माटी उर्वर हो
फल-फूलों से नत तरुवर हो
समृद्ध धरा को कर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ 

न झोपड़ी महल में फर्क़ करूँ
कण-कण सूरज का अर्क मलूँ
तम घिरे तो छन से बिखर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

फौजी माँ बेटा खोकर रोती है
बेबा दिन-दिनभर कंटक बोती है
उस देहरी पर खुशियाँ धर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

जग माटी का देह माटी है
साँसें जलती-बुझती बाती है
अबकी यह तन ना नर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

©श्वेता सिन्हा

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Saturday 3 November 2018

माँ हूँ मैं


गर्व सृजन का पाया
बीज प्रेम अंकुराया
कर अस्तित्व अनुभूति 
सुरभित मन मुस्काया 

स्पंदन स्नेहिल प्यारा
प्रथम स्पर्श तुम्हारा
माँ हूँ मैं,बिटिया मेरी
तूने यह बोध कराया

रोम-रोम ममत्व कस्तूरी 
जीवन की मेरी तुम धुरी
चिड़िया आँगन किलकी
ऋतु मधुमास घर आया

तुतलाती प्रश्नों की लड़ी
मधु पराग फूलों की झड़ी 
"माँ" कहकर बिटिया मेरी
माँ हूँ यह बोध कराया

नन्हें पाँव की थाप से डोले
रूनझुन भू की वीणा बोले
थम समीर छवि देखे तेरी
ठिठका इंद्रधनुष भरमाया

जीवन पथ पर थामे हाथ
भरती डग विश्वास के साथ
शक्ति स्वरुपा कहकर बिटिया
"माँ" का सम्मान बढ़ाया

आशीष को मन्नत माने तू
सानिध्य स्वर्ग सा जाने तू
उज्जल,निर्मल शुभ्र लगूँ
मुझे गंगा पावन बतलाया

जगबंधन सृष्टि क्या जाने तू?
आँचल भर दुनिया माने तू
स्त्रीत्व पूर्ण तुझसे बिटिया
माँ हूँ मैं, तूने ही बोध कराया

--श्वेता सिन्हा

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Monday 29 October 2018

मन मेरा तुमको चाहता है



गिरह प्रश्न सुलझा जाओ
प्रियतम तुम ही समझा जाओ
क्यूँ साथ तुम्हारा भाता है?
 नित अश्रु अर्ध्य सींचित होकर
प्रेम पुष्प हरियाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

मन से मन की नातेदारी
व्यथा,पीर हिय फुलकारी
उर उपवन के तुम प्रीत गंध
मोहिनी डोर कैसा ये बंध?
पलभर साथ की चाह लिये
सहमा-सहमा मृग आह लिये
छू परछाई अकुलाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

कोने में छत की साँझ ढले
बूँद-बूँद रिस चाँद गले
सपने आँचल रखे गिन-गिन
क्यूँ भाव तरल बरसे रिम झिम?
स्मृति पटल मैं बंद करुँ
आँच विरह की मंद करुँ
बाती-सा हिय जल जाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

जाने कब मौन में आन बसे
हर खुशी है तुझमें जान बसे
प्रीत कुमुदिनी आस लिये
महके क्यूँ करुणा हास लिये?
अंतस रिसती पिचकारी को
मनभावों की किलकारी को
शब्दों में तोला जाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

---श्वेता सिन्हा





Tuesday 23 October 2018

शरद पूर्णिमा

रिमझिम-रिमझिम बरसी चाँदनी,
तन-मन,रून-झुन, बजे रागिनी।
पटल नील नभ श्वेत नीलोफर,
किरण जड़ित है शारद हासिनी।

परिमल श्यामल कुंतल बादल,
मध्य विहसे मृदु केसरी चंदा।
रजत तड़ाग से झरते मोती, 
छल-छल छलके सुरभित नंदा

जमना तट कंदब वट झुरमुट,
नेह बरसे मधु अंजुरी भर-भर।
बिसराये सुध केशव-राधा,
रचे रास मधुकुंजन गिरधर।

बोझिल नयन नभ जग स्वप्निल,
एकटुक ताके निमग्न हो चातक।
चूमे सरित,तड़ाग,झील नीर लब,
ओस बन अटके पुष्प अधर तक।

रजत थाल जाल दृग मोहित,
दमदम दमके नभ भव करतल 
पूरण कामना हिय चित इच्छित, 
अमित सुधा रस अवनि आँचल।

    #श्वेता सिन्हा


Sunday 14 October 2018

मन उलझन


एकाकीपन की बेला में
हिय विरहन-सा गाता है
धागे भावों के न सुलझे
मन उलझन में पड़ जाता है

जीवन का गणित सरल नहीं
चख अमृत घट बस गरल नहीं
पीड़ा की गाँठों को छूकर प्रिय
नेह बूँद सरस भर जाता है
तृषित भ्रमर की लोलुपता 
मन उलझन में पड़ जाता है

समय लहर की अविरल धारा
उर तृप्ति पल गिन-गिन हारा
सुख-दुख,कंटक जाल घिरा
पथ शशक समझ न पाता है
तब अनायास पाकर साथी 
मन उलझन में पड़ जाता है

मन चाहे मन को बाँधना क्यूँ ?
कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
जी की असीमित इच्छाओं से
चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
पर तुम्हें सामने पाता जब भी
मन उलझन में पड़ जाता है

जग जीवन का औचित्य है क्या?
मनु जन्म, मोक्ष,सुकृत्य है क्या?
आना-जाना फेरा क्यूँ है?
मन मूढ़ मति मेरा क्यूँ है?
राग-विराग मय पी-पीकर
मन उलझन में पड़ जाता है

--श्वेता सिन्हा

Wednesday 10 October 2018

अनुभूति

माँ का ध्यान हृदय सदा
शान्ति सुधा बरसाती
मलयानिल श्वासों में घुल
हिया सुरभित कर जाती

मौन मगन दैदीप्त पुंज 
मन भाव विह्वल खो जाता
प्लावित भावुक धारा का
अस्तित्व विलय हो जाता

आतपत्र आशीष वलय
रक्षित जीवन शूल,प्रलय
वरद-हस्त आशंकाओं से
शुद्ध आत्मा मुक्त निलय

आँचल छाँह वात्सल्यमयी 
भय-दुःख, मद-मोह, मुक्त
अनुभूति,निर्मल निष्काम
शुभ्र पलछिन रसयुक्त

चक्षु दिव्य तुम ज्ञान गूढ़ का
जीवन पथ माँ भूल-भूलैय्या
लहर-लहर में भँवर जाल
भव सागर पार करा दे नैय्या

यश दिगंत न विश्वविजय
माँँ गोद मात्र वात्सल्य अटूट
जग बंधन से करो मुक्त अब
पी अकुलाये जी कालकूट

-श्वेता सिन्हा




Saturday 6 October 2018

जीवन रण में


 कुरुक्षेत्र के जीवन रण में
गिरकर फिर चलना सीखो 
कंटक राहों के अनगिन सह
छिलकर भी पलना सीखो

लिए बैसाखी बेबस बनकर
कुछ पग में ही थक जाओगे
हिम्मत तो करो अब पाँव तले
हर डर को तुम दलना सीखो

 पट बिन नयनों के खोले ही
कहते हो तम का पहरा है
तुम आग हो एक चिंगारी हो
जगमग-जगमग जलना सीखो

 खोना क्यों दीदा रो-रोकर
न विगत लौट फिर आयेगा
बीत रहा जो उस क्षण के
रंगों में घुल ढलना सीखो

पिघल धूप में जाते हो 
क्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो

सलवटों में उमर की छुपी हुई
दबी घुटी हुई कुछ निशानियाँ 
पूरा करना हो स्वप्न अगर 
गले हौसलों के मिलना सीखो

-श्वेता सिन्हा

Sunday 30 September 2018

गहरा रंग


उँघती भोर में
चिड़ियों के कलरव के साथ
आँखें मिचमिचाती ,अलसाती
चाय की महक में घुली
किरणों की सोंधी छुअन
पत्तों ,फूलों,दूबों पर पसरे
पनीले इंद्रधनुष,
सुबह की ताज़गी के
सारे रंग समेटकर
हल्दी,नमक,तेल,छौंक,बघार,
में डालकर
अक़्सर नज़र अंदाज़
कर देती है
बहार का रंग,
दौड़ती-भागती,
पिटारों से निकालकर
अलगनी पर डालती
कुछ गीली,सूखी यादों को,
 श्वेत-श्याम रंग की सीली खुशबू
को नथुनों में भरकर
 कतरती,गूँथती,पीसती,
अपने स्वप्नों के सुनहरे रंग,
पतझड़ को बुहारकर
देहरी के बाहर रख देती
हवाओं की सरसराहट
मेघों की आवारगी,
खगों,तितलियों,
भँवरों का गीत
टेसु के फूल,
हरसिंगार की लालिमा,
केसरिया गेंदा,सुर्ख़ गुलाब
महकती जूही
चाँदनी की स्निग्धता,
गुनगुनी धूप की मदमाहट,
बसंत की सुगबुगाहट,
रिमझिम बूँदों सी बरसती
रंगों को मिलाकर
एक चुटकी सिंदूर के रंग में
 सजाती है
अपने माथे पर,
अपने तन-मन पर
 खिले सारे रंगों को निचोड़कर
 समर्पण की तुलिका को
 डुबो-डुबोकर भाव भरे पलों में
 पुरुष की कामनाओं के कैनवास पर
 उकेरती है अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति
हल्के रंगों से रंगकर
अपने व्यक्तित्व
 उभारकर चटख रंगों को
 रचती है
 पुरुषत्व का गहरा रंग।

 -श्वेता सिन्हा


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...