Saturday 10 March 2018

हथेली भर प्रेम

मौन के इर्द-गिर्द 
मन की परिक्रमा
अनुत्तरित प्रश्नों के रेत से
छिल जाते है शब्द

डोलते दर्पण में
अस्पष्ट प्रतिबिंब
पुतलियाँ सिंकोड़ कर भी
मनचाही छवि नहीं उपलब्ध

मौन ध्वनियों से गूँजित
प्रतिध्वनियों से चुनकर
तथ्य और तर्क से परे
जवाब का चेहरा निः शब्द

सवाल के चर अचर 
संख्याओं में उलझा
बिना हल समीकरण 
प्रीत का ऐसा ही प्रारब्ध

मौन के अँगूठे से दबकर
छटपटाते मन को स्वीकार
मिला हथेली भर प्रेम 
समय की विरलता में जो लब्ध

   #श्वेता सिन्हा


Wednesday 7 March 2018

नारी : कही-अनकही


जीवन की बगिया की
मैं पुष्प सुरभित सुकुमारी
सृष्टि बीज कोख में सींचती
सुवासित करती धरा की क्यारी

मैं मोम हृदय स्नेह की आँच से
पिघल-पिघल  साँचे में ढलती
मैं गीली माटी प्रेम की चाक में
अस्तित्व भुला घट नेह के भरती

मैं चंदन की लकड़ी घिस-घिस
मन की ज्वाला शीतल करती
मैं मेंहदी की पात-सी पिसकर
साँसों में प्रीति की लाली रचती

मुझ बिन हर कल्पना अधूरी
जगत सृष्टि एक स्वप्न रह जाये
मैं न रहूँ तो शायद लगे यों
प्राण न हो ज्यों तन रह जाये

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"अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस" एक तारीख़ है आधी आबादी के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए,यह जताने के लिए पुरुषसत्ता समाज में उनका भी सम्मान किया जाता है।  बड़ी-बड़ी बयानबाजियों और नारी सुरक्षा के तमाम एक्ट पारित होने के बावजूद अभी भी समाज के कुछ विकृत भेड़ियों से आज भी औरतें, युवतियाँ तो शिकार हैं  ही बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं। दर्द तो इस बात का है कि इन व्याभिचारियों को उचित सजा समय से नहीं मिलती हमारी दोषपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के आगे लाचार है शिकार महिला वर्ग। क्यों नारी को एक देह के रुप में ही देखा जाता है?  स्वयं अपने बूते हर क्षेत्र में आगे रहने के बावजूद पुरुषों की छत्रछाया में सुरक्षा ढूँढती औरत सच में इतनी ही निरीह है क्या?  चाहे नारी स्वतंत्रता और बदलाव की जितनी भी डुगडुगी पीट ली जाय पर सच तो यही है कि एक स्त्री के लिए समाज की सोच कभी नहीं बदलती।

  ‎‎अपनी श्रेष्ठता,प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए हर बार औरत को प्रमाण देना पड़ता है,अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। ईश्वर के द्वारा बनाई गयी सर्वश्रेष्ठ कृति नारी कोमल तन-मन की स्वामिनी होती है, पर कभी-कभी महसूस होता है औरत की सृजनात्मक क्षमता ही उसका अभिशाप है इसी शक्ति को कमजोरी बनाकर समाज हथियार की तरह उसी के खिलाफ इस्तेमाल करता है। उसका मानसिक,शारीरिक और भावनात्मक दोहन किया जाता है।
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  नारी अपनी आज़ादी का अर्थ जाने क्यों किचन से छुट्टी, घर की देखभाल से मुक्ति या बड़े-बूढ़ों की सेवा से राहत इत्यादि घरेलू कामों से लगाती है। आज़ादी का व्यापक अर्थ अब तक शायद आधी आबादी के कुछ तबकों की समझ से दूर है। मेरी समझ से "आज़ादी का सही अर्थ अपनी क्रियाशीलता, अपनी सृजनात्मकता,अपनी क्षमता को बिना किसी व्यावधान के उपयोग कर जो आत्मिक खुशी मिलती है उसे महसूस करना है।" मर्यादित या संस्कारों में रहना नारी स्वतंत्रता को कतई कम नहीं करता बल्कि उसमें और तेज उत्पन्न करता है। यह मान लीजिए कि आप की सहनशीलता और दायित्वों का बोध आपकी कार्यक्षमता को निखारता है।  ‎
जो औरतें आज़ादी के नाम पर बेपरवाही का ढोंग करती है, मर्यादाओं को रौंदकर मनचाही ज़िंदगी जीने की महत्वाकांक्षी होती हैं,उन्हें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का अर्थ जब तक समझ में आता है तब तक सब कुछ बिखर चुका होता है। स्वतंत्रता का गलत फायदा उठाकर स्वयं को मिटाकर,पछताती औरतें जीवन की सिलवटों को खोखली ज़िद और दंभ की परतों में छुपाये भीतर ही भीतर दरकती रहती हैं आधुनिकता का मुखौटा पहनकर और अधिकतर कमज़ोर पड़कर, निराश होकर फिर आत्मघाती कदम उठा लेती हैं।

कुल मिलाकर नारी स्वतंत्रता के नाम पर, आधुनिकता के नाम पर पगलायी औरतों को सही चारित्रिक मूल्य समझकर अपनी प्रतिभा को पहचानकर, स्वाभिमान से समाज में अपनी पहचान बनानी होगी। उन्हें समझना होगा के पल्लू  सर से उतार कमर में खोंसकर अपने अस्तित्व को साबित करने को तैयार नारी की चुनौती पुरुष नहीं, सामाजिक कुरीतियाँ हैं। एक पिता,भाई और पति के रुप में पुरुषों के द्वारा मिले सहयोग और हौसले को सकारात्मक ऊर्जा में बदलने से ही नारी उत्थान संभव है न कि आधुनिकता की होड़ में खोकर अपने अस्तित्व को धूमिल करने में।

   - श्वेता सिन्हा
     ७ मार्च २०१८
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मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...