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Sunday 28 January 2018

तितली


                            मुद्दतों बाद 
आज फिर से
भूली-बिसरी 
राहों से गुज़रते 
हरे मैदान के 
उपेक्षित कोने में  
गुलाब के सूखे झाड़
ने थाम लिया दुपट्टा मेरा
टूटकर बिखरी पंखुड़ियाँ 
हौले से
छू गयी पाँव की उंगलियां
सुर्ख रंग
पोरों से होकर
ठिठुरती धूप में फैल गयी
काँपती धड़कनों में,
कुनकुनी किरणें 
अथक प्रयास करने लगी
जमी वादियों की बर्फ़ पिघलाने की
एक गुनगुना एहसास 
बंद मुट्ठियों तक आ पहुँचा
पसीजी हथेलियों की 
आडी़ तिरछी लकीरों से
अनगिनत रंग बिरंगे
सोये ख़्वाब फिर से
ख़्वाहिशों के आँगन में
तितली बन उड़ने लगे।
               -----श्वेता🍁

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मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...