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Sunday 16 February 2020

मधुमास


बर्फीली ठंड,कुहरे से जर्जर,
ओदायी, 
शीत की निष्ठुरता से उदास,
पल-पल सिहरती
आखिरी साँस लेती
पीली पात
मधुमास की प्रतीक्षा में,
बसंती हवा की पहली 
पगलाई छुअन से तृप्त
शाख़ से लचककर 
सहजता से
विलग हो जाती है। 

ठूँठ पर 
ठहरी नरम ओस की 
अंतिम बूँद को 
पीने के बाद
मतायी हवाओं के
स्नेहिल स्पर्श से
फूटती नाजुक मंजरियाँ, 
वनवीथियों में भटकते
महुये की गंध से उन्मत
भँवरें फुसफुसाते हैं
मधुमास की बाट जोहती,
बाग के परिमल पुष्पों 
के पराग में भीगी,
रस चूसती,
तितलियों के कानों में।

बादलों के गाँव में
होने लगी सुगबुगाहट
सूरज ने ली अंगड़ाई,
फगुनहट के नेह ताप से
आरक्त टेसु,
कूहू की पुकार से
व्याकुल,
सुकुमार सरसों की
फूटती कलियों पर मुग्ध
खिलखिलाई चटकीली धूप।

मधुमास शिराओं में 
महसूस करती
दिगंबर प्रकृति
नरम,स्निग्ध,
मूँगिया ओढ़नी पहनकर
लजाती,इतराती है।

#श्वेता सिन्हा
१६/०२/२०२०

Saturday 20 January 2018

बसंत


भाँति-भाँति के फूल खिले हैं रंग-बिरंगी लगी फुलवारी।
लाल,गुलाबी,हरी-बसंती महकी बगिया गुल रतनारी।।

स्वर्ण मुकुट सुरभित वन उपवन रंगों की फूटे पिचकारी।
ओढ़़ के मुख पर पीली चुनरी इतराये सरसों की क्यारी।।

आम्र बौर महुआ की गंध से कोयलिया कूहके मतवारी।
मधुरस पीकर मधुकर झूमे मधुस्वर गुनगुन राग मनहारी।।

रश्मिपुंजों के मृदु चुंबन पर शरमायी कली पलक उघारी।
सरस सहज मनमुदित करे बाल-विहंगों की  किलकारी।।

ऋतुओं जैसे जीवन पथ पर सुख-दुख की है साझेदारी।
भूल के पतझड़ बांह पसारो अब बसंत की है तैय्यारी।।


Tuesday 9 January 2018

अंकुराई धरा


धूप की उंगलियों ने 
छू लिया अलसाया तन 
सर्द हवाओं की शरारतों से
तितली-सा फुदका मन

तन्वंगी कनक के बाणों से
कट गये कुहरीले पाश
बिखरी गंध शिराओं में
मधुवन में फैला मधुमास

मन मालिन्य धुल गया
झर-झर झरती निर्झरी 
कस्तूरी-सा मन भरमाये
कंटीली बबूल छवि रसभरी

वनपंखी चीं-चीं बतियाये
लहरों पर गिरी चाँदी हार
अंबर के गुलाबी देह से फूट
अंकुराई धरा, जागा है संसार

       #श्वेता🍁

Friday 22 December 2017

सूरज तुम जग जाओ न


धुँधला धुँधला लगे है सूरज
आज बड़ा अलसाये है
दिन चढ़ा देखो न  कितना
क्यूँ.न ठीक से जागे है
छुपा रहा मुखड़े को कैसे
ज्यों रजाई से झाँके है

कुछ तो करे जतन हम सोचे
कोई करे उपाय है
सूरज को दरिया के पानी मे
धोकर आज सुखाते है
चमचम फिर से चमके वो
वही नूर ले आते है

सब जन ठिठुरे उदास है बैठे
गुनगुनी धूप भर जाओ न
देकर अपनी मुस्कान सुनहरी
कलियों के संग गाओ न
नील गगन पर दमको फिर से
संजीवन तुम भर जाओ न
मिलकर धरती करे ठिठोली
सूरज तुम जग जाओ न

Tuesday 12 December 2017

किसी साँझ के किनारे


किसी साँझ के किनारे
पलकें मूँदती हौले से,
आसमां से उतरकर
पेडों से शाखों से होकर
पत्तों का नोकों से फिसलकर,
ख़ामोश झील के
दूर तक पसरे सतह पर
कतरा-कतरा पिघलकर
सूरज की डूबती किरणें
गुलाबी रंग घोल देती है,
रंगहीन मन के दरवाजे पर
दस्तक देती साँझ, 
स्याह आँगन में
जलते बुझते टिमटिमाते
सपनीली ख़्वाहिशों के सितारे
मौन वेदना लिए निःशब्द
प्रतीक्षारत से वृक्ष,
जो अक्सर बेचैन करते है
गुलाबी झील में गुम हुई
परछाईयों में यादों को,
ढूँढता है मन संवेदनाओं में
लिपटे गुजरे कुछ पल,
उस उदास झील के 
तन्हा गुलाबी किनारे पर।

          #श्वेता



Friday 24 November 2017

शाम

शाम
---
उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर
साँझ दीये केे बाती में
जल गयी भीनी भीनी शाम
थककर लौट रहे खगों के
परों पे सिमट गयी
खोयी सी मुरझायी शाम
उदास दरख्तों के बाहों में
पत्तों के दामन में लिपटी
सो गयी चुप कुम्हलाई शाम
संग हवा के दस्तक देती
सहलाकर सिहराती जाती
उनको छूकर आयी है
फिर से आज बौराई शाम
देख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम

      #श्वेता🍁
   

Friday 3 November 2017

मन की नमी

दूब के कोरों पर,
जमी बूँदें शबनमी।
सुनहरी धूप ने,
चख ली सारी नमी।
कतरा-कतरा
पीकर मद भरी बूँदें,
संग किरणों के, 
मचाये पुरवा सनसनी।
सर्द हवाओं की
छुअन से पत्ते मुस्काये,
चिड़ियों की हँसी से,
कलियाँ हैं खिलीं,
गुलों के रुख़सारों पर 
इंद्रधनुष उतरा,
महक से बौरायी, 
हुईं तितलियाँ मनचली।
अंजुरीभर धूप तोड़कर 
बोतलों में बंद कर लूँ,
सुखानी है सीले-सीले,
मन की सारी नमी।



       #श्वेता🍁

Monday 30 October 2017

शरद का स्वागत


पहाड़ों
का मौसम
फ़िज़ांओं में 
उतर आया है।
चाँदनी ने 
सारी रात 
खूब नेह 
बरसाया है।

ओस में भीगी 
फूल और पत्ते 
ताजगी 
जगाने लगी,
करवट 
ले रहा
मौसम
हवाओं ने 
एहसास 
कराया है।

नीले नीले 
आसमां में
रूई से 
बादल 
उड़ने लगे,
गुनगुनी 
धूप की 
बारिश ने, 
रुत को 
रंगीन 
बनाया है।

भँवर 
और तितली
फूलों से
बतियाने लगे,
गुलाब की 
खुशबू ने 
बाग का 
हर कोना 
महकाया है।

शरद के 
स्वागत में 
वादियों के 
दामन 
सजने लगे,
बहकी
हवाओं ने 
हर शय में
नया राग 
जगाया है।

       #श्वेता🍁

Tuesday 26 September 2017

समन्दर का स्वप्न

चित्र साभार-गूगल

मौन होकर
अपलक ताकते हुये
मचलती  ख़्वाहिशों  के,
अनवरत ठाठों से व्याकुल 
समन्दर अक्सर स्वप्न देखता है।
खारेपन को उगलकर
पाताल में दफ़न करने का,
मीठे दरिया सा 
लहराकर हर मर्यादा से परे
इतराकर बहने का स्वप्न।
बाहों में भरकर
आसमान के बादल
बरसकर माटी के आँचल में
सोंधी खुशबू बनकर 
धरा के कोख से
बीज बनकर फूटने का स्वप्न
लता, फूल, पेड़
की पत्तियाँ बनकर
हवाओं संग बिखरने का स्वप्न।
रंगीन मछलियो के
मीठे फल कुतरते
खगों के साथ हंसकर
बतियाने का स्वप्न।
चिलचिलाती धूप से आकुल
घनी दरख़्तों के
झुरमुट में शीतलता पाने का स्वप्न।
अपने सीने पर ढोकर थका
गाद के बोझ को छोड़कर
पर्वतशिख बन
गर्व से दिपदिपाने का स्वप्न।
मरूभूमि की मृगतृष्णा सा
छटपटाया हुआ समन्दर
घोंघें,सीपियों,शंखों,मोतियों को
बदलते देखता है
फूल,तितली,भौरों और परिंदों में,
देखकर थक चुका है परछाई
झिलमिलाते सितारें,चाँद को
उगते,डूबते सूरज को
छूकर महसूस करने का स्वप्न देखता है
आखिर समन्दर बेजान तो नहीं
कितना कुछ समाये हुये
अथाह खारेपन में,
अनकहा दर्द पीकर
जानता है नियति के आगे 
कुछ बदलना संभव नहीं
पर फिर भी अनमने
बोझिल पलकों से
समन्दर स्वप्न देखता है।

   #श्वेता सिन्हा



Friday 22 September 2017

हरसिंगार


नीरव निशा के प्रांगन में हैं
सर सर  मदमस्त बयार,
महकी वसुधा चहका आँगन
खिले हैं हरसिंगार।

निसृत अमृत बूँदे टपकी
जले चाँद की मुट्ठी से,
दूध में चुटकी केसर छटकी
धवल दमकती बट्टी से,
सुंदर रूप नयन को भाये
खिले हैं  हरसिंगार।

संग सितारे बोले हौले 
मौन है उसका गीत,
कूजित है हरित पात पर
पीर भरा संगीत,
लिपटे टहनी के अधरों से
खिले हैं हरसिंगार।

भोर किरण को छूकर चूमे
दूब के गीले छोर,
शापित देव न चरण चढ़े
व्यथित छलकती कोर,
रवि चंदा के मिलन पे बिछड़े
खिले है हरसिंगार।

#श्वेता🍁

Tuesday 19 September 2017

कास के फूल

शहर के बाहर खाली पड़े खेत खलिहानों में,बिछी रेशमी सफेद चादर देखकर मन मंत्रमुग्ध हो गया।जैसे बादल सैर पर निकल आये हो।लंबे लंबे घास के पौधे पर लगे नाजुक कास के फूल अद्भुत लग रहे थे। अनायास ही तुलसीदास की पंक्तियाँ याद आ गयी-

 ‘वर्षा विगत शरद रितु आई, देखहूं लक्ष्मण परम सुहाई,
  फूले कास सकल मही छाई, जनु बरसा कृत प्रकट बुढा़ई'

     कास के फूल खिलने का मतलब बरसा ऋतु की विदाई और शरद का आगमन।मौसम अंगड़ाई लेने लगता है।हवा की गरमाहट नरम होने लगती है,मौसम सुहावना होने लगता है।


कास के फूल
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बादल की झोली से झरे है
बूँदे बरखा की लडि़यों से
बनकर बर्फ के धवल वन
पठारों पे खिले कास के फूल

झुंड घटा के धरती पर उतरे
सरित, तालाब,मैदान किनारे
हरित धरा का आँचल भरने
सफेद फूलों की टोकरी धरने
धवल पंखों की चादर ओढ़े
हौले मुसकाये कास के फूल

रेशमी नाजुक डोर में लिपटे
श्यामल फुनगी सितारे चिपटे
बड़ी अदा से अंगडाई ले
छुईमुई  रूई के फाहे उड़े
करने स्वागत नयी ऋतु का
खिलखिलाये कास के फूल

झूमे पवन संग लहराये 
चूमे धरा को  बलखाये
मुग्ध नयन हो सम्मोहित
बाँधे नुपुर बड़े घास खड़े
करते निर्जन को श्रृंगारित
है मदमाये कास के फूल

   #श्वेता🍁


Tuesday 5 September 2017

इंतज़ार

स्याह रात के
तन्हा दामन में
लम्हा लम्हा
सरकता वक्त,
बादलों के ओठों पर
धीमे धीमें मुस्कुराता
स्याह बादल के कतरों
 के बीच शफ्फाक
हीरे की कनी सा
आँखों को लुभाता
शरमीला चाँद,
खामोश ताकते
सितारों की महफिल से
छिटक कर गिरते
ख्वाहिशों के टुकड़े
एक एक कर  चुनती
समेटती मुट्ठियों में
अनदेखे ख्वाब,
भीगती सारी रात
चाँदनी की बारिश में
जुगनुओं से खेलती लुका छिपी
काँच की बोतलों में
भरकर ऊँघते चाँद की खुशबू
थक गयी हटाकर
बादलों के परदे
एक झलक भोर के
इंतज़ार में,
लंबी रात की पल पल गिनती
बैठी हूँ आज फिर
अपने आगोश मे
दरख्तों को लेकर सोये
झील के खामोश किनारे पर।

        #श्वेता🍁



Sunday 6 August 2017

आवारा चाँद

दूधिया बादलों के
मखमली आगोश में लिपटा
माथे पर झूलती
एक आध कजरारी लटों को
अदा से झटकता
मन को खींचता मोहक चाँद
झुककर पहाड़ों की
खामोश नींद से बेसुध वादियों के
भीगे दरख्तो के
बेतरतीब कतारों में उलझता
डालकर अपनी चटकीली
काँच सी चाँदनी बिखरा
ओस की बूँदों पर छनककर
पत्तों के ओठों को चूमता
मदहोश लुभाता चाँद
ठंडी छत के आँगन से होकर
झाँकता झरोखें से
हौले हौले पलकों को छूकर
सपनीले ख्वाब जगाता चाँद
रात रात भर भटके
गली गली क्या ढ़ूँढता जाने
ठहरकर अपलक देखे
मुझसे मिलने आता हर रोज
जाने कितनी बातें करता
आँखों में मुस्काता
वो पागल आवारा चाँद

    #श्वेता🍁


Tuesday 18 July 2017

बादल पर्वत पर ठहरे है

किरणों के बाल सुनहरे है
लुक छिप सूरज के पहरे है

कलकल करती जलधाराएँ
बादल पर्वत पर ठहरे है

धरती पे बिखरी रंगोली
सब इन्द्रधनुष के चेहरे है

रहती है अपने धुन में मगन
चिड़ियों के कान भी बहरे है

टिपटिप करती बूँदों से भरी
जो गरमी से सूखी नहरे है

चुप होकर छूती तनमन को
उस हवा के राज़ भी गहरे है




Friday 14 July 2017

रात के सितारें

अंधेरे छत के कोने में खड़ी
आसमान की नीले चादर पर बिछी
नन्हें बूटे सितारों को देखती हूँ
उड़ते जुगनू के परों पर
आधे अधूरे ख्वाहिशें रखती
टूटते सितारों की चाह में
टकटकी बाँधे आकाशगंगा तकती हूँ
जो बीत गया है उन पलों के
पलकों पे मुस्कान ढ़ूढती हूँ
श्वेत श्याम हर लम्हे में
बस तुम्हें ही गुनती हूँ
क्या खोया क्या पाया
सब बेमानी सा लगे
जिस पल तेरे साथ मैं होती
मन के स्याह आसमान में
जब जब तेरे यादों के सितारे उभरते
बस तुझमें मगन पूरी रात
एक एक तारा गिनती हूँ
तुम होते हो न होकर भी
उस एहसास को जीती हूँ
     #श्वेता🍁


Thursday 22 June 2017

बरखा ऋतु

तपती प्यासी धरा की
देख व्यथित अकुलाहट
भर भर आये नयन मेघ के
बूँद बूद कर टपके नभ से
थिरके डाल , पात शाखों पे
टप टप टिप टिप पट पट
राग मल्हार झूम कर गाये है
पवन के झोंकें से उड़कर
कली फूल संग खिलखिलाए
चूम धरा का प्यासा आँचल
माटी के कण कण महकाये है
उदास सरित के प्रांगण में
बूँदों की गूँजें किलकारी
मौसम ने ली अंगड़ाई अब तो
मनमोहक बरखा ऋतु आयी है।

कुसुम पातों में रंग भरने को
जीवन अमृत जल धरने को
अन्नपूर्णा धरा को करने को
खुशियाँ बूँदों में बाँध के लायी है
पनीले नभ के रोआँसें मुखड़े
कारे बादल के लहराते केशों में
कौंधे तड़कती कटीली मुस्कान
पर्वतशिख का आलिंगन करते घन
घाटी में रसधार बन बहने को
देने को नवजीवन जग को
संजीवनी बूटी ले आयी है
बाँह पसारें पलकें मूँदे कर
मदिर रस का आस्वादन कर लो
भर कर अंजुरी में मधुरस
भींगो लो तन मन पावन कर लो
छप छप छुम छुम रागिनी पग में
रूनझुन पाजेब पहनाने को
बूँदों का श्रृंगार ले आयी है
जल तरंग के मादक सप्तक से
झंकृत प्रकृति को करने को
जीवनदायी बरखा ऋतु आयी है।

      #श्वेता🍁

Tuesday 6 June 2017

पहली फुहार


तपती धरा के आँगन में
उमड़ घुमड़ कर छाये मेघ
दग्ध तनमन के प्रांगण में
शीतल छाँव ले आये मेघ
हवा होकर मतवारी चली
बिजलियो की कटारी चली
लगी टपकने अमृत धारा
बादल के मलमली दुपट्टे
बरसाये अपना प्रथम प्यार
इतर की बोतलें सब बेकार
लगी महकने मिट्टी सोंधी
नाचे मयूर नील पंख पसार
थिरक बूदों के ताल ज्यों पड़ी
खिली गुलाब की हँसती कली
पत्तों की खुली जुल्फें बिखरी
सरित की सूखी पलकें निखरी
पसरी हथेलियाँ भरती बूँदें
करे अठखेलियाँ बचपन कूदे
मौन हो मुस्काये मंद स्मित धरा
बादल के हिय अमित प्रेम भरा
प्रथम फुहार की लेकर सौगात
रूनझुन बूँदे पहने आ रही बरसात


        #श्वेता🍁


Saturday 3 June 2017

एक रात ख्वाब भरी

गीले चाँद की परछाई
खोल कर बंद झरोखे
चुपके से सिरहाने
आकर बैठ गयी
करवटों की बेचैनी
से रात जाग गयी
चाँदनी के धागों में
बँधे सितारे
बादलों में तैरने लगे
हवा लेकर आ गयी
रातरानी की खुशबू में
लिपटे तेरे ख्याल
हवाओं की थपकियाँ देकर
आगोश में लेकर सुलाने लगे
मदभरी पलकों को चूमकर
ख्वाबों की परियाँ
छिड़क कर
तुम्हारे एहसास का इत्र
पकड़ कर दामन
खींच रही है स्वप्निल संसार में

       #श्वेता🍁






Sunday 21 May 2017

आकाश झील

दिन भर की थकी किरणें
नीले आकाश झील के
सपनीले आगोश से
लिपटकर सो जाती है
स्याह झील के आँगन में
हवा के नाव पर सवार
बादल सैर को निकलते है
असंख्य ख्वाहिशों की कुमुदनी
में खिले सितारों की झालर
झील के पानी में जगमगाते है
शांत झील के एक कोने में
श्वेत दुशाला डाले तन्हा चाँद
आधा कभी पूरा मुख दिखलाता
जाने किस सोच में गुम उदास
निःशब्द बर्फ के शिलाखंड से
बूँद बूँद चाँदनी पिघला कर
मन को उजास की बारिश में
भिंगोकर शीतल करता है
निर्मल विस्तृत आकाश झील
हृदय के जलती बेचैनियों को
अपने सम्मोहन में बाँधकर
खींच लेता है अपनी ओर
और पलकों में भरकर स्वप्न
समा लेता है अपने गहरे संसार में।

    #श्वेता🍁




सूरज

उनींदी पलकों को खोलकर देखे
भोर से मिलता अलसाता सूरज

घटाओं के झुरमुट से झाँककर
स्मित मुस्कान बिखराता सूरज

पर्वतशिख के बाहुपाश में बँध
सुधबुध सर्वस्व बिसराता सूरज

मस्त पवन के अमृत प्याले पीकर
हर फूल कली को रिझाता सूरज

चूमकर धरा की धानी चुनरिया
लता वन कानन दुलराता सूरज

नदी तड़ाग का जल सोना करके
सागर में छककर नहाता सूरज

नियत समय पर मिलने है आता
दिनभर कितना बतियाता सूरज

बादल से आँख मिचौली खेलता
रूप बदलकर दिखलाता सूरज

सप्त अश्व रथ में बैठकर चलता
सुबह और शाम बतलाता सूरज

        #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...