Tuesday 30 May 2017

किस तरह भुलाऊँ उनको

ऐ दिल बता किस तरह भुलाऊँ उनको
फोडूँ शीशा ए दिल न नज़र आऊँ उनको

काँटें लिपटे मुरझाते नहीं गुलाब यादों के
तन्हा बाग में रो रोके गले लगाऊँ उनको

दूर तलक हर सिम्त परछाईयाँ नुमाया है
कैसे मैं बात करूँ कहाँ से लाऊँ उनको

जबसे भूले वो रस्ता मेरा दर सूना बहुत
तरकीब बता न कैसे याद दिलाऊँ उनको

दिल के खज़ाने की पूँजी है चाहत उनकी
किस तरह खो दूँ मैं कैसे गवाऊँ उनको

       #श्वेता🍁

Friday 26 May 2017

तुम्हारा स्पर्श


मेरे आँगन से बहुत दूर
पर्वतों के पीछे छुपे रहते थे
नेह के भरे भरे बादल
तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श पाकर
मन की बंजर प्यासी भूमि पर
बरसने लगे है बूँद बूँद
रिमझिम फुहार बनकर
अंकुरित हो रहे है
बरसों से सूखे उपेक्षित पड़े
इच्छाओं के कोमल बीज
तुम्हारे मौन स्पर्श की
मुस्कुराहट से
खिलने लगी पत्रहीन
निर्विकार ,भावहीन
दग्ध वृक्षों के शाखाओं पे
 गुलमोहर के रक्तिम पुष्प
भरने लगे है रिक्त आँचल
इन्द्रधनुषी रंगों के फूलों से
तुम्हारे शब्दों के स्पर्श
तन में छाने लगे है बनकर
चम्पा की भीनी सुगंध
लिपटने लगे है शब्द तुम्हारे
महकती जूही की लताओं सी
तुम्हारे एहसास के स्पर्श से
मुदित हृदय के सोये भाव
कसमसाने लगे है आकुल हो
गुनगुनाने लगे है गीत तुम्हारे
बर्फ से जमे प्रण मन के
तुम्हारे तपिश के स्पर्श में
गलने लगे है कतरा कतरा
हिय बहने को आतुर है
प्रेम की सरिता में अविरल
देह से परे मन के मौन की
स्वप्निल कल्पनाओं में
       
        #श्वेता🍁

समेटे कैसे

सुर्ख गुलाब की खुशबू,हथेलियों में समेटे कैसे
झर रही है ख्वाहिशे संदीली,दामन में समेटे कैसे

गुज़र जाते हो ज़ेहन की गली से बन ख्याल आवारा
एहसास के उन लम्हों को, रोक ले वक्त समेटे कैसे

रातों को ख्वाब के मयखाने में मिलते हो तुम अक्सर
भोर की पलकों से फिसलती, खुमारी को समेटे कैसे

काँटें लफ्ज़ों के चुभ जाते है आईना ए हकीकत में
टूटे दिल के टुकड़ों का दर्द,झूठी मुस्कां में समेटे कैसे

तेरे बिन पतझड़ है दिल का हर एक मौसम सुन लो
तेरे आहट की बहारों को,उलझी साँसों में समेटे कैसे
          #श्वेता🍁

Wednesday 24 May 2017

तुम्हारी तरह

गुनगुना रही है हवा तुम्हारी तरह
मुस्कुरा रहे है गुलाब तुम्हारी तरह

ढल रही शाम छू रही हवाएँ तन
जगा रही है तमन्ना तुम्हारी तरह

हंस के मिलना तेरा मुस्कुराना
तेरी बातें सताती है तुम्हारी तरह

लफ्जो़ं से अपनी धड़कन को छूना
बहुत याद आती है तुम्हारी तरह

कहानी लिखूँ या कविता कोई मैं
गज़ल बन रही है तुम्हारी तरह

न तुम सा कोई और प्यारा लगे है
नशा कोई तारी है तुम्हारी तरह

   #श्वेता🍁


Sunday 21 May 2017

आकाश झील

दिन भर की थकी किरणें
नीले आकाश झील के
सपनीले आगोश से
लिपटकर सो जाती है
स्याह झील के आँगन में
हवा के नाव पर सवार
बादल सैर को निकलते है
असंख्य ख्वाहिशों की कुमुदनी
में खिले सितारों की झालर
झील के पानी में जगमगाते है
शांत झील के एक कोने में
श्वेत दुशाला डाले तन्हा चाँद
आधा कभी पूरा मुख दिखलाता
जाने किस सोच में गुम उदास
निःशब्द बर्फ के शिलाखंड से
बूँद बूँद चाँदनी पिघला कर
मन को उजास की बारिश में
भिंगोकर शीतल करता है
निर्मल विस्तृत आकाश झील
हृदय के जलती बेचैनियों को
अपने सम्मोहन में बाँधकर
खींच लेता है अपनी ओर
और पलकों में भरकर स्वप्न
समा लेता है अपने गहरे संसार में।

    #श्वेता🍁




क्यों खास हो

नासमझ मन कुछ न समझे
कौन हो तुम क्यों खास हो

बनती बिगड़ती आस हो
अनकही अभिलाष हो
हृदय जिससे स्पंदित है
तुम वो सुगंधित श्वास हो
छूटती जीवन डोर की
तुम प्रीत का विश्वास हो

क्या हो कह दो खुद ही तुम
धड़कनों में क्यों खास हो

आधे अधूरे मन की वेदना
मौन में गूँजित हो साधना
न मिलो न पास हो पर,
ख्वाब तुम, तुम ही कल्पना
हर मोड़ पर जीवन के
तुमसे ही मिलती है प्रेरणा
अवनि से अंबर तक फैले
स्नेहिल भाव का आकाश हो

मेरे ख्यालों से न जाना तेरा
तन्हाईयों में तुम क्यों खास हो

मेरे रुप का अभिमान तुम
झुकी पलकों का सम्मान तुम
बड़े जतन से सँभाले रखा है
दिल के कोरे पन्नों पे नाम तुम
तुम हो जब तक चल रही है
धड़कते हो जीवन प्राण तुम
मिटती नहीं जितना भी बरसे
आकुल हृदय की प्यास तुम

तुम्हे महसूस कर इतराऊँ मैं
बता न तुम इतने क्यों खास हो

          #श्वेता🍁


सूरज

उनींदी पलकों को खोलकर देखे
भोर से मिलता अलसाता सूरज

घटाओं के झुरमुट से झाँककर
स्मित मुस्कान बिखराता सूरज

पर्वतशिख के बाहुपाश में बँध
सुधबुध सर्वस्व बिसराता सूरज

मस्त पवन के अमृत प्याले पीकर
हर फूल कली को रिझाता सूरज

चूमकर धरा की धानी चुनरिया
लता वन कानन दुलराता सूरज

नदी तड़ाग का जल सोना करके
सागर में छककर नहाता सूरज

नियत समय पर मिलने है आता
दिनभर कितना बतियाता सूरज

बादल से आँख मिचौली खेलता
रूप बदलकर दिखलाता सूरज

सप्त अश्व रथ में बैठकर चलता
सुबह और शाम बतलाता सूरज

        #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...